शनिवार, 27 मार्च 2010

सबसे  पहले  तो  धर्म  के नाम पर लड़ने वालो कि जय  हो (अगर वो ऐसा ना करे तो उन्हें कौन पूछे यहाँ ).
आप सभी ऐसे मुद्दों को क्यों उठाते हो ?
ऐसे मुद्दों पर बात करने के लिये और उन पर रोटिया सेकने के लिये तो देश के राजनीतिक दल ही काफी थे भाइयो .
इन सब बातों से किसी को क्या हांसिल हुआ हैं?  कोई तो मुझे बता दो कृपा करके.
धर्म के नाम पे जितने भी मसले उठे हैं उनसे काफी जनहानि हो चुकी हैं पहले ही, पर कभी किसी धार्मिक अवसाद से उत्पन माहोल  से पीड़ित लोगो से बात करके देखो कि वो क्या कहते हैं.
वो किसी धर्म को नही सिर्फ अपनों के दर्द को समझते हैं और मेरे ख्याल से मानव धर्म सबसे बड़ा हैं. जो दुसरो का कष्ट महसूस  करे वो सबसे बड़ा धरमपुरुष हैं.
इसलिए अगर बढ़ाना हैं तो सोहार्द बढाइये. बस इतना ही निवेदन हैं.
वो सब पहले वाली बातें थी आज के दौर में अगर जीना हैं तो ऐसी सोच बदलनी पड़ेगी.
संजीव राणा 
हिन्दुस्तानी 

गुरुवार, 25 मार्च 2010

बुजुर्गो का सम्मान करे क्योंकि एक दिन आप को भी बुजुर्ग होना हैं.


श्याम सुंदर जी को इस बात का अफ़सोस हैं कि उनका लड़का मोहन उनकी बात नही सुनता हैं.
  रामचंद्र  जी को खाली घर काटने को दौड़ता हैं. 
शिवराम  जी को इस बात का ख्याल सताता हैं कि भरा पूरा परिवार होने के बावजूद भी उनका दिल इतना तन्हा क्यों हैं.

ये सब बातें सुनने में तो बहुत आसान लग रही हैं. लेकिन कभी इन सब के बारे में जरा गहराई से सोचकर तो देखो .
जरा इस बात का अहसास करके तो देखो कि हम जिसे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं और वो हमसे बोलना भी पसंद ना करे तो हम पर क्या बीतेगी .
वैसे भी कहते हैं कि शादी के बाद घरवालो के बजाये अपनी श्रीमती जी ज्यादा अच्छी लगती हैं और जब बच्चे हो जाये तो उनपर तो श्रीमती जी से भी ज्यादा प्यार आने लगता हैं. कई बार तो जितने भी झगडे हो तो सहमती बच्चो के कारण ही बन पाती हैं. ये तो रहा यहाँ तक का सफ़र , अब जरा सोचिये जब उन बच्चो कि शादी हो जाती हैं तो प्रकर्ती का नियम , दोबारा वही बात वहीँ  से शुरू हो जाती हैं. लेकिन अब अगर वो बच्चे जिन्हें हम अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करते हैं और जिनकी एक छोटी सी  दर्द भरी आवाज से हम पूरी रात नही सो पाते थे अगर अब वो हमसे बोलना भी पसंद ना करे तो हम पे क्या गुजरेगी. 

हाँ ये बात जरुर  होती हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी सोच में बदलाव आता जाता हैं . और आज हम अपने आप को अपने माता- पिता से ज्यादा समझदार मानते हैं , कल हमारे बच्चो के साथ भी तो यही होना हैं. ये भी सोचकर चलिए.
किसी ने सही कहा हैं कि 
"जवानी जाकर आती नही हैं और 
बुढ़ापा आकर जाता नही हैं "

वो कंधे जो हमें हमेशा ऊपर उठाने के लिये तैयार रहते थे क्या आज हम सिर्फ उनसे प्यार से बात भी नही कर सकते ?

ये हमेशा याद रखना कि उन्होंने हमें जन्म दिया हैं तो कम से कम हम उनसे ऊरीण तो ना हो .
उन्होंने आपको बचपन में संभाला तो आपकी भी जिम्मेदारी बनती हैं कि उन्हें बुढ़ापे में संभाले क्योंकि बुढ़ापा भी बचपन का दूसरा रूप हैं.

मुझे एक बात  याद आ रही हैं जरा गौर करियेगा 

" कल जब हम छोटे थे और कोई हमारी बात भी नही समझ पाता था तब सिर्फ एक हस्ती थी जो हमारे टूटे - फूटे अल्फाज भी समझ लेती थी , और आज हम उसी हस्ती को ये कहते हैं कि 
(आप नही जानती )
(आप नही समझ पाएँगी) 
(आपकी बात मुझे समझ नही आती )
(हो गयी अब आप खुश )

आप समझ ही गये होंगे कि में  किस कि बात कर रहा हूँ.
तो इस सम्माननीय हस्ती का सम्मान करे इससे पहले कि देर हो जाये.
 
"शख्त रास्तो में भी आसान सफ़र लगता हैं

ये उसे  माँ कि दुवाओ का असर लगता हैं

एक मुद्दत से उसकी माँ नही सोई जब

उसने कहा था कि 'माँ मुझे डर लगता हैं"

बस सोच लेना जैसा अपने माता - पिता के साथ करोगे तो आप के बच्चे भी तो आप से ही सीखते हैं , वो भी वैसे ही करेंगे .
तो क्यों ना उनको अच्छी सीख दे अपनी अच्छी बातों से .
और उन्हें बुजुर्गो कि सेवा और प्यार करना सिखाये .
आगे चलकर ये आपके मान सम्मान कि बात होगी.
कुच्छ समय घर में बुजुर्गो के साथ अवश्य बिताये .और फिर देखना उनके प्यार और दुवाओ कि आप पर कैसे अच्छी बरसात होती हैं.

सोमवार, 22 मार्च 2010

आज का दौर और बढ़ता तनाव



अनिल पुसाद्कर जी के लेख आतम हत्या को पढ़कर सचमुच मन सोचने को मजबूर हो गया है कि  आखिर क्या क्या कारण हो सकते हैं कि  एक आदमी आतम हत्या के रास्ते को चुनता हैं.
क्यों उसको ऐसा लगने लगता हैं की उसके लिये इस दुनिया में जीना मरने से भी मुश्किल हो गया  हैं.

ये  जानकर हर बार दुःख होता हैं कि फिर आज फलां बच्चे ने suside कर लिया  हैं.
इसके  कारण तो बहुत हैं और मै ये समझता हूँ  की जब तक ये अफरा - तफरी का दौर चलता रहेगा तब तक ये बातें भी  होती ही रहेगी.
हम भारतीय बहुत ही भावुक होते हैं और अपनी भावनाओं को अपने बच्चो  पर थोपते हैं.
होता यू हैं कि  हम खुद जब अपनी जिन्दगी में कुछ  काम नही कर पातें तो अपने बच्चो को आशा के रूप में देखने लगते हैं.
बिना इसकी परवाह किये कि  क्या वह इसके लिए तैयार हैं .और हम अपनी मानसिकता ऐसी बना लेते हैं की हमें किसी  भी कीमत पर वो चीज़े चाहिए .
इसके लिए उनपर हमेशा दबाव बनाते रहते हैं.
आपने अपने आसपास काफी माता- पिता को यह कहते सुना होगा कि  पडोसी के बच्चे की तो फर्स्ट division आई हैं तो तेरी क्यों नही आई. उसने ये मैडल लिया हैं तूने  क्यों नही लिया .
तू उसके जितना क्यों नही पढता हैं.
वो कितना अच्छा हैं और तू कहा भी नही मानता हैं.
ये सब बातें कहने वाला तो आराम से कह जाता हैं यह जाने  बिना की जो सुन रहा है उसके जीवन में ये बातें कितना अंतर पैदा कर देगी.
आज आप किसी  भी विद्यालय  के पास जाकर देखो कि बच्चो के कंधो पे इतना बोझ होता हैं जितना  सायद  उनमे खुद में भी नही होता होगा. 
पहले भी तो अच्छे विद्यार्थी होते थे ऐसी तो बात नही की अब अलग पढाई पढ़ी जा रही हैं .
फिल्म  अभिनेता आमिर खान ने तो अपनी पिछली दोनों फिल्मो में यही  बताने का प्रयास  किया हैं कि  हर बच्चा अपने आप में ख़ास हैं और उसकी किसी दूसरे  से तुलना भी नही की जानी चाहिए.  " तारे जमीन पे" और three idiots इसका एक अच्छा उदाहरण  हैं

मेरे  ख्याल  से इन सबका सबसे अच्छा हल तो ये हैं कि  हम अपने बच्चो को हालात  से जूझना सिखाये . उनमे हार या असफलता का डर ख़त्म  करे .
उनको उनकी हर कौशिश पे ये समझाया जाये की बेटा तुम कौशिश करो और कभी हार या असफलता से मत घबराओ  .
कभी रिजल्ट खराब आये तो उनको विश्वास  में लेकर ये सिखाओ की कोई बात नही हैं जो तू असफल हो गया हैं.
जिन्दगी में सिर्फ यही  अकेला अवसर नही था जो तूने खो दिया है. तू हिम्मत कर और इस हार के कारणों को दूर करते  हुए तब तक कौशिश कर जब तक ये हार जीत में ना बदल जाए .
उसके मन से असफल होने का डर निकालकर अपने प्यार को उसकी ताकत बनाकर तो देखो . फिर देखो कि  वो जीवन के हर संघर्ष और तनाव   को कैसे संजीदगी , उत्साह और आतम  विश्वास  के साथ लेता हैं.
क्योंकि
" दोस्तों समय को तो बीत ही जाना  हैं चाहे हम उस दौरान  हँसे या रोये. जब बीतना ही हैं तो क्यों ना हँस  के बिताये  .
क्योंकि ये ना हो कि  हम अपने अहम् और दुनिया के competition में यह भी भूल जाये कि  ये जीवन अनमोल हैं और हमें इसको ऐसे ही नही गवाना हैं.

ये मेरी एक छोटी सी कौशिश थी जो मेरे जहन में आ रही थी और मैंने काफी ऐसे लोगो को देखा हैं जो इस तरह की सोच रखकर आज खुश हैं 
अनिल जी का धन्यवादी hun जो इस अहम् मुद्दे पे सुरुआत   की.
और आप सभी से भी यही  चाहूँगा कि  अपनी राय या और अच्छे सुझाव इन सब तनाव को कम करने के लिए टिपण्णी के रूप में  नज़र जरुर करोगे.

जीना इसी का नाम हैं
जब तक जियो हँस  के जियो 
संजीव राणा
हिंदुस्तान 

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

जागो देश के नागरिको..................

अभी मैंने खुशदीप जी के ब्लॉग  देशनामा  में जो पढ़ा हैं उसकी एक परती में आपके सामने समर्पित करता हु 
इस पर आशा करता हु की आप एक हिन्दुस्तानी होने के नाते गौर जरुर करेंगे 

मातृभूमि की सेवा करने वाले सैनिक क्या अलग मिट्टी के बने होते हैं...क्या वो आपके-हमारी तरह इंसान नहीं होते...सरहद पर दुश्मन से मोर्चा लेते हुए शहीद होने वाले रणबांकुरों की रगों में क्या कुछ अलग तरह का लहू दौड़ता है...आज एक पिता की नज़र से बताता हूं आपको ऐसे ही कुछ जांबाज़ों की कहानी...वो अब इस दुनिया में नहीं हैं...लेकिन उनके साथ जो बीती, उसे सुनकर आपका ख़ून भी खौलने लगेगा...

एक पिता ने अपने शहीद बेटे के साथ कुछ और शहीदों के गुनहगारों को सज़ा दिलाने के लिए मुहिम छेड़ी है...ये पिता जानते हैं कि रास्ता बहुत मुश्किल है...लेकिन उन्होंने इस मुहिम को ही अपना जीवन समर्पित कर दिया है...



लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया अपने माता-पिता के साथ



यहां मैं बात कर रहा हूं शहीद लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया की...4 जाट रेजीमेंट का वो जियाला ऑफिसर जिसने करगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ का सबसे पहले पता लगाया था...15 मई 1999 को एलओसी के अंदर भारतीय सीमा में पेट्रोलिंग करते 22 साल के लेफ्टिनेंट कालिया और उनके साथी पांच रणबांकुरों को पाकिस्तानी सेना के घुसपैठियों ने बंधक बना लिया...इन छह जांबाज़ों के शहीद होने से पहले पाकिस्तानी कायरों ने तीन हफ्ते तक उन्हें बंधक बना कर रखा...देश के इन सपूतों के साथ किस तरह की दरिंदगी के साथ पेश आया गया ये 9 जून 1999 को पाकिस्तानी सेना की ओर से सौंपे गए शवों से ही पता चल सका...



शवों पर जगह-जगह सिगरेट से द़ागे जाने के निशान, कानों में जलती सलाखों से छेद, आंख़े फोड़ कर शरीर से निकाल दी गईं, ज़्यादातर हड़डियों और दांतों को तोड़ दिया गया, उंगलियां काट ली गई और भी न जाने क्या क्या...इस तरह का शारिरिक और मानसिक अत्याचार कि शैतान भी शरमा जाए...22 दिन के पाशविक जुल्म के बाद सभी छह जवानों को गोली मार दी गई...भारतीय सेना के पास सभी छह शहीदों की विस्तृत पोस्टमार्टम रिपोर्ट है...पाकिस्तानी सेना ने सारे अंतरराष्ट्रीय नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए ये अमानवीय अत्याचार किया...जुल्म की इंतेहा के बावजूद हमारे रणबांकुरों ने दुश्मन के सामने घुटने नहीं टेके...सब कुछ सहने के बावजूद देशभक्ति और बहादुरी की मिसाल कायम की...लेफ्टिनेंट कालिया के साथ शहीद होने वाले पांच सिपाहियों के नाम हैं-



1. सिपाही अर्जुन राम पुत्र श्री चोक्का राम


गांव और पीओ....गुडी


तहसील और जिला नागौर (राजस्थान)






2. सिपाही भंवर लाल बगारिया पति श्रीमती भवरी देवी


गांव...सिवेलारा


तहसील और ज़िला सीकर


राजस्थान






3. सिपाही भीकाराम पति  भावरी देवी 


गांव पटासार, तहसील पचपत्वा


ज़िला बाड़मेर, राजस्थान






4. सिपाही मूला राम पति श्रीमती रामेश्वरी देवी


गांव कटोरी, तहसील जयाल


ज़िला नागौर, राजस्थान






5. सिपाही नरेश सिंह पति श्रीमति कल्पना देवी


गांव छोटी तल्लाम


जिला अलीगढ़, उत्तर प्रदेश 




देश के लिए सर्वोच्च बलिदान हर जवान के लिए फख्र की बात होती है, लेकिन कोई अभिभावक, कोई सेना, कोई देश उस जालिम बर्ताव को बर्दाश्त नहीं कर सकता जो भारत माता के सच्चे सपूतों के साथ किया गया...अगर हमने युद्धबंदियों के साथ किए जाने वाले व्यवहार और उनके हक और हकूक के लिए आवाज नहीं उठाई तो हर मां-बाप अपने कलेजे के टुकड़ों को सेना में भेजने से पहले सौ बार सोचने लगेंगे...जो लेफ्टिनेंट कालिया और उनके पांच बहादुर साथियों के साथ हुआ, बुरे से बुरे सपने में भी और किसी के लाल के साथ न हो...


ताज्जुब की बात है ज़रा ज़रा सी बात पर आसमान एक कर देने वाले देश के मानवाधिकार संगठन भी इस मुद्दे पर कानों में तेल डालकर सोए हुए हैं...मैं इस पोस्ट के ज़रिए पूरी ब्लॉगर बिरादरी और देश के नागरिकों से अपील करता हूं कि इस मुद्दे पर लेफ्टिनेंट कालिया के पिता का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दें...अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन पर इतना दबाव डाला जाए कि वो पाकिस्तान को ये पता लगाने के लिए मजबूर कर दे कि वो कौन से वर्दीधारी शैतान थे जिन्होंने दरिंदगी की सारी हदें पार कर डालीं...बेनकाब हो जाने के बाद इंसानियत के इन दुश्मनों को ऐसी कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए कि दुनिया में फिर कोई युद्धबंदियों के साथ ऐसा बर्ताव करने की ज़ुर्रत न कर सके...लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया के पिता डॉ एन के कालिया का पता और फोन नंबर हैं...


डॉ एन के कालिया

सौरभ नगर


पालमपुर- 176061 (हिमाचल प्रदेश)


फोन नंबर +91(01894) 32065



लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया के पिता डॉ एन के कालिया ने ई-मेल के ज़रिए भी इस आवाज़ को बुलंद करने की मुहिम छेड़ रखी है...मेरे पास भी एक ई-मेल आया है...कल मैं भी जितने लोगों के ई-मेल एड्रैस जानता हूं सब को वो अपने नाम को लिखने के बाद फॉरवर्ड करूंगा...आपको भी बस यही करना है....ज़्यादा से ज़्यादा अपने जानने वालों को वो ईृ-मेल भेजें....


लेफ्टिनेंट सौरभ समेत इन छह रणबांकुरों ने मोर्चे पर अपने प्राणों का बलिदान इसलिए दिया कि हम अपने घरों में चैन से सो सकें...क्या हमारा उनके लिए कोई फ़र्ज नहीं बनता है...आप चाहें तो डॉ एनके कालिया का फोन के ज़रिेए भी इस मुहिम के लिए हौसला बढ़ा सकते हैं....



जय हिंद....



स्लॉग गीत



ए मेरे वतन के लोगों, ज़रा आंख में भर लो पानी,


जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुरबानी...

ये सब पढ़कर मुझे काफी गुस्सा आया . पाकिस्तानियों को तो छोडो उनका सवभाव ही ऐसा हैं पर अपने नेताओं को भी तो इसके बारे में सोचना चाहिए कुछ या फिर वो बस हमेशा अपने पेट और पैसे के लिए सिर्फ उन मुद्दों पे झगड़ते रहेंगे जिनसे उनका अपना मतलब जुड़ा हुआ हैं.


मुझे गुस्सा आया और मैंने अपनी भडाश निकलने के लिए जो मेरे मन में आया यहाँ लिख दिया.







"खून  खोल  उठता  हैं   मेरा 

जब  देखता  हु  ऐसे  अत्याचारों  को

पर  क्या  करू  बेबस  हो  जाता  हु  में  जब

देखता  हु  अपने  राजनीती  के  गद्दारों   को

संसद में  करते  हैं   हंगामा  पागलो   की  तरह

और  भूल  जाते  हैं  अपने  देशप्रेमी  बेचारों  को

मोन हैं  पर  नही  हैं  कायर  मेरे  देशवासी 

चलो  बता  दे  ये  सभी  देश  के  सिपेसह्लारो  को

या  तो  करवाओ  सम्मान  सहीदो  का  या

अब  तुम  छोड़  दो  राजनीती  के  गलियारों  को "

में इस मुहीम में हमेशा साथ रहूँगा

जब  अपने  नेता  पहले  ही  घुटने  टेक   देते  हैं  तो  बताइए  हम  और  आप  तो  सिर्फ  गुस्सा  ही  कर  सकते  हैं  ना.

सच  में  गुस्सा  बड़ा  आता  हैं
खून  खोल  खोल  जाता  हैं